Monday, June 22, 2009

यह बंधन है भावनाओं का ---- सात फेरे

"वो हम ही क्या जिसमे तुम नही ,वो तुम ही क्या जिसमे हम नही "।

पड़ोंस की बिटिया को हल्दी लगी नही कि अपनी बेटी सयानी लगने लगती है । दूर कहीं बजती शहनाई कीगूँज और विदाई के गीतों पर भी माँ कि आख्ने भर आती है, ये सोच कर कि न जाने कब उनकी लाडों कि विदाई की बेला आयेगी । पापा भी तो रात - दिन इसी फ़िक्र में लगे रहते है कि हमारी बिटिया के हाथ कब पीले होंगे। ..........ओर एक दिन ऐलानकर दिया जाता है कि लड़के वाले देखने आ रहे है । हिना की महक ,शहनाई की मीठी मधुर आवाज़ ,सखियों की खिलखिलाहट यानि वातावरण विवाह का । विवाह की रुत करीब है और प्रीत की इस रीत में सात फेरो का भी तो मान है । सात फेरो को लेकर ही तो बेटे- बेटी , पति -पत्नी बनकर कई रिश्तो व रिवाजो के दायरे में सिमट जाते है । रस्मों के नाम पर ही तो दो लोग एक दूसरे के नाम से जुड जाते है ,यही जीवन की रीत है और यही रिवाज भी है । जिन्दगी का ........चुटकी भर सिंदूर ही पूरे जीवन का सार बन जाता है । विदाई के आँसू ससुराल के लिए स्नेह बन जाते है और नेह के नये रिश्ते जुड़ जाते है एक परिवार के साथ ।
अक्सर एक सवाल उठता है की सात कदम ही क्यों ? असल में सात का अंक का अपने आप में अत्यन्त गहरी आधात्मिक ,दार्शनिक और देवीये स्थान समेटे हुए है । उर्जा के सात आयाम है ,पवित्र अग्नि की सात शिखाये है । सात नदिया है , स्त्री के जीवन के भी सात चरण है और शरीर के सात चरण है। संगीत के सात सुर है ,सूर्य की सात किरणे है और मुख्य ग्रेह भी सात है इसलिय सात को एक ऐसा पवित्र अंक माना गया है ,जो एक लाबी आयु देता है । सावित्री और सत्यवान की प्रसिद्ध कथा में सावित्री यमराज से कहतीं है की मैं आपके साथ सात कदम चल चुकी हूँ लिहाजा हम अपने आप ही मित्र बन चुके है और अब जबकि हम मित्र है ,आप मेरे पति को मुझसे दूर ले जा कर विधवा कैसे बना सकते है । इस तरह सप्तपदी की अवधारणा मनुष्य के चार पहलुओं धर्म ,अर्थ ,काम मोझ की साधना से बहुत गहरे स्तर पर जुड़ी हुई है । सप्तपदी के बारे में 'पारस्कर ' और वेदों में कहा गया है की यह रस्म निभाए बिना विवाह का कोई मतलब नही है । यहाँ तक की माता -पिता द्वरा कन्यादान कर दिए जाने के बाद भी विवाह को सम्पूर्ण नही माना जा सकता । जब तक कन्या ख़ुद सात कदम चलने की रस्म निभाने का निर्णय न ले । इसके बाद ही दुल्हन ,दुल्हे के बांये आकर पत्नी के रूप में स्थान लेती है । सप्तपदी ही एक ऐसी रस्म है जो कन्या को पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर वर चुनने का अधिकार देती है । इस रस्म को निभाते हुए दुल्हन विवाह के हाँ करती है । और दुल्हे को अपने पति के रूप में वरण करती है । वेदों कहा गया है की कन्या को तब तक अविवाहित माना जाएगा जब तक की सप्तपदी की रस्म पूरी न हो जाए । अक्सर लोग फेरो को ही सप्तपदी समझ लेते है ,लेकिन ऐसा है नही । सप्तपदी अलग रस्म है और इसमे दूल्हा -दुल्हन दोनों साथ -साथ उत्तर -पूर्व की ओर चलते है । चलते हुए दुल्हन दाहिने तरफ होती है और दुल्हे का दायां हाथ उसके दाए कंधे पर होता है । दूल्हा -दुल्हन से कहता है ,अपने बाये पैर को दाए से आगे मत निकालना हर कदम पर दूल्हा -दुलहन एक संकल्प लेते है । यही तो सात वचन है और सही में विवाह के मायने भी यही समझ में आते है । सामाजिक वा अदालतों के अनुभवों के आधार पर कुल मिलकर यह ही कहा जा सकता है की विवाह एक दूसरे को समझना , एक दूसरे को मान और विश्वास देना ही विवाह हैसबसे ख़ास बात यह भी कही जा सकती है की परम्परागत विवाह हो या प्रेम विवाह सुखी वैवाहिक जीवन का आंकने का पैमाना नही है ।
जब मैं यह पोस्ट लिख रहा था तब उस समय मौजूद मेरे साथी ने कहा की वाह गुरु बहुत सही ,जिसका अनुभव नही उसमे अतिक्रमण । उस पर मैंने कहा की घोडी पर नही बैठे है तो क्या हुआ बराती तो बहुत बने है ।







3 comments:

pushpa said...

“Yeh bandhan hai bhavnao ka”
“agar atut viswas hai samerpan ki bhavna hai tou bandhan ke dhage agle saat janm tak pakke, warna saat saal ke andar dhago ki gathane khulne lag jate hai”

khidki se said...

ye bandhan jo sat fere se he matr pura nahi hota in saat fere ki likhi sachhai bhi honi jaruri hai jise aap ne bakhubhi samjaha achha laga.

pondararyouth said...

nishchit roop se utkristh, shubhkamnayen! itnna vivechit post likhane ke liye! agani ke saat pheron se prarambha ye bandhan jane kis tarah janmon tak aatmaaon ka bandhan ban jata hai pata hi nahin chalta.
aap ke liye "jaroori nahin godi chadhane wala hi SHADI ka marm samjhe! kavi hridaya ke liye sab bhavanayen sulabh hain." punh, shubhkamanayen !!!!