Wednesday, December 24, 2008

जो धागा तुम से जुड़ गया..........

अभी पिछले दिनों कुछ बुजुर्ग दंपत्तियों से बातचीत हुई, जो अपनों की दुनिया से दूर थे या दबी जुबान से यह भी कह सकते की उनके अपनों ने उनको अपनी दुनिया से दूर कर दिया । जीवन के अन्तिम पड़ाव पर इनमे से कुछ लोगो ने अपने जीवनसाथी की कमी महसूस की तो किसी ने कहा की इस लंबे सफ़र में परिवार से दूर है तो क्या हुआ हम पति - पत्नी तो है ,अब तो हम ही एक दूसरे के जीवन के सहयात्री है बस.........। "बस" जैसे इस दो अक्षर के शब्द में जो दर्द है उसको बयां करना मुश्किल है । एक बुजुर्ग दंपत्ति ने कहा की यह तो जीवन है इसमें तो उस रास्ते पर भी चलना पड़ जाता है जिस पर कभी सोचा भी नही होता है इन्ही बुजुर्ग दम्पंती ने एक दूसरे की ओर हँसते हुए कहा की अब ...............जो धागा तुम से जुड़ गया वफा का .................
यह पोस्ट मैं उनके दर्द व अनुभव के आधार पर ही लिख पा रहा हूँ इस नाते यह पोस्ट उन्ही बुजुर्गो लोगो के लिए जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा।
रह्स्वादी कहते है की जीवन एक अजूब पहेली है ,इसे जाना नही जा सकता । हम जीवन के पूरे सफ़र में एक ऐसे यात्री की भूमिका निभाते है ,जो आशा की नन्ही किरण की खोज में भटकता रहता है । कितना अच्छा हो की इस लंबे सफर में कोई मन का मीत मिल जाए । जब हमारे पैर लड़खडाने लगे तो वह हाथ थाम ले और जब हम सफलता के शिखर पर हो तो वो भी सहभागी हो और सत्य के अन्तिम पलों में साथ हो । वह मन का मीत हमारा जीवन साथी ही हो सकता है ।
परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई होने के साथ -साथ स्नेह का स्रोत भी है । मधुर पारिवारिक माहौल से सिर्फ़ व्यक्ति को पनपने का मौका मिलता है बल्कि वह समाज को भी संतुलित करता है ।

परिवार को बसाने और बनाये रखने में सबसे अहम् भूमिका पति -पत्नी की ही तो होती है , चाहे वे नवविवाहित हो या बरसो पुराने । क्यों न वह मेड फार इच अदर वाले भी हो । सम्बन्धों का स्वरूप बदलते मौसम की तरह है ,जिसमे कभी गर्माहट , कभी ठंडक ,तो कभी बसंत का जादू मुस्करा उठता है, उसमे धूप -छावं की आखं मिचौनी सदा अपने खेल खेलती रहती है । लेकिन एक बात और भी है प्रेम रस में भीगे रहना ही विवाह नही है हालाँकि दाम्पत्य की स्निग्धा उसके बिना कभी सम्पूर्ण नही हो सकती है । कोई भी रिश्ता हो उसमे ईमानदरी का बीज भी होना जरुरी है तभी तो रिश्ता निभाने का मजा है । किसी भी रिश्ते में अपनेपन के साथ निश्ल भावः हो तो कहने ही क्या । इन सबके होने से संबंधो की बगिया सदाबहार रह सकती है ।

हमें जरूरत सबेरे की ज्यादा है ,उसमे आलोकित होकर ही हम सुख के ग्राही हो सकते है वैसे पी.वी. शैली के शब्दों में कहा जाए तो "दिन बसंत के दूर नही अब , आता हो तो आए पतझड़ ।